मानवीय जीवन में कर्मयोग की उपादेयत्ता
Keywords:
खेती-व्यापार, धंधा करनाAbstract
मनुष्य के अन्दर कर्म करने की स्वाभाविक प्रवृति है। कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। क्योंकि समस्त मनुष्य मनुदाय प्रकृति जनित गुणों के द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी मनुष्य प्रकृति के गुणों से बाधित होकर कर्म में लीन रहते हैं। कर्म ही मनुष्य के बंधन का कारण होता है। इससे प्रतीत होता है कि जब कर्म बन्धन का कारण होते है और उन्हें किये बिना भी नहीं रहा जा सकता तो मनुष्य सदा बंधन में बंधा रहेगा। किन्तु यह सही नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार कर्म बंधन का कारण बनते हैं उसी प्रकार कर्म मुक्ति का कारण होते है।1 श्रीकृष्ण ने तो कहा है, “गहना कर्मणोगति” अर्थात् कर्म की गति गहन है, रहस्यमय है।2 प्रथम वे कौन से कर्म है जो मुक्तिदायक होते और दूसरे उन कर्मो के करने की विधि क्या है।” अर्थात कौन से कार्य करने चाहिए और कौन से कर्म नहीं करने चाहिए इसका निर्णय करने के लिए तुम्हारे पास शास्त्र प्रमाण है इस विषय में शास्त्रों की राय जानकर उन्हीं के अनुसार कर्म करने चाहिए।3 अब बात आती है कि कर्म क्या है कर्म शब्द ‘कृ’ धातु से बना है इसका सामान्य अर्थ करना व्यापार या हलचल होता है। ‘करना’ अर्थ में मनुष्य जो कुछ करता है, वही उसका कर्म है। कर्म के अर्थ में मनुष्य जो कुछ भी करता है- खाना-पीना, खेलना, रहना, श्वासोच्छवास करना, हंसना , रोना, बोलना, सुनना, चलना देना-लेना, जागना, मानना, मनन व अध्ययन करना, आज्ञा और निषेध करना, दान देना, यज्ञ-योग करना, खेती-व्यापार और धंधा करना
References
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योग और योगी - डाॅ अनुजा रावत च्ंहम 124
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