मानव उत्कर्ष में प्रत्याहार की भूमिका - एक अध्ययन
Keywords:
प्रत्याहार, मानवAbstract
आज हम देखते हैं कि विज्ञान के क्षेत्रा में तो मानव में बहुत उन्नति कर ली है। लेकिन दूसरी तरपफ नई-नई बिमारियों का जन्म हो रहा है। मनुष्य के संस्कार विलुप्त होते जा रहे है। वह संस्कारों को भूलकर अनेक बूरी आदतों का शिकार हो रहा है। जैसे मादक पदार्थो का सेवन अपहरण, भ्रुणहत्या, रिश्वतखोरी, बलात्कार, माँस भक्षण के प्रति आशक्ति आदि। बड़े दुख की बात तो यह है कि लड़कियाँ भी इन सबका शिकार हो रही है। जिसके कारण छोटी उम्र में ही उनके चेहरे का नूर गायब हो चुका है। वे अनेक झूठे ढोंगी संतों के चंगुल में पफँस कर रह गई है। जो भक्ति के नाम पर लड़कियो का शोषण करते है। लेकिन यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि मनुष्य का अपनी इन्द्रियों पर नियंत्राण नही है। वह अपनी इन्द्रियों का सदुपयोग नही कर पा रहा है। इसके लिए हमें अपनी इन्द्रियों को विषयो से हटाकर अन्र्तमुखी बनाना है क्योंकि इन्द्रियों का विषयों से संपर्क होने पर विषयाशक्ति की भावना जाग जाती है। हम इस शक्ति को बचाकर साध्ना के कार्यो में लगा सकते है।
References
ज्यों-ज्यों इनको भोग दे, परबल होती जाहि।
बिना भेग होही नही, वह बल रहे जुनाहि।।
नेन जु भोगे रूप को, और गन्ध् को घ्रान।
षटरस भोगे जीभ ही, शबदहि भोगे कान।।
त्वचा भोगि अस्पर्श को, बाढ़ै अध्कि विकार।
पांचैं इन्द्री जानि ले, इनको यही आहार।।
इनसे मिलिमिलि मनबिगडि, होय गया कछु और।
इन्द्री रोकै मन रूकै, रहे जु अपनी ठौर।। भक्ति सागर अष्टांग योग 129
प्रत्याहर इति चैतन्यत्तुरîõाणां प्रत्याहरणं विकारग्रसनम।
उत्पन्न-विकारस्यापि निवृति भवति इति प्रत्याहार लक्षणम्।। सि( सि(ांत प(ति 2/36
शब्दादिष्वनुषक्तानि निगृह्याक्षणि योगवित्।
वुफर्याच्चित्तानुकारिणी प्रत्याहार परायणाः।। विष्णु पुराण
इन्द्रियाणि प्रसक्तानि यथास्र्व विषयेष्विह।
आहत्य यन्निगृींाति प्रत्याहारः स उच्यते।। विष्णु पुराण
ज्यों-ज्यों होवे प्राण वश, त्यों-त्यांे मनवश होय।
ज्यों-ज्यों इन्द्रि थिर रहै, विषयजायं सब खोय।। भक्तिसागर अष्टांगयोग 129
नित्य विहित कर्म पफल त्यागः प्रत्याहार। शांण्डिल्योपनिषद
तथेन्द्रियाणां दह्यान्ते दोषाः प्रावस्य निग्रहात्।
प्राणायामैर्दहेद्दोषान धरणाभिश्च किल्तिषम।
प्रत्याहारेण ससर्गान् ध्यानेनानीश्वरान गुणान्।। मनुस्मृति 6/71,72
ताते प्राणायाम करि, प्राणायमहि सार।
पहिले प्राणायाम कर, पीछे प्रत्याहार।। भक्तिसागर अष्टांगयोग 129
स्पर्शान्कृत्वा बहिबाह्याश्रच्क्षुश्रच्वान्तरे भ्रुवोः।
प्रणापानैः समौकृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।। गीता 5/27
यतेन्द्रियमनो बु(िर्मुनिमेक्षिपरायणः
विगतेच्ध्वभय क्रोधे यः सदा मुक्त एवं सः।। गीता 5/28
प्रणायामनश्यस्यतो{तस्य योगिन् क्षीयते विवेकज्ञान वरणीय कर्म।
यत्तदाचक्षते-महामोहमयेनेन्द्रजालेन प्रकाशशीलं सत्वमातृत्य तदेवा कार्ये नियुडक्त इति। योगदर्शन व्यासभाष्य 2/52
रागद्वेषाभावे सुख दुःख-शून्य शब्दादिज्ञानभिन्द्रियजय इति केचित्।
चितैकाग्रयादप्राितेपतिरेवेति जैगीषव्यः। योगदर्शन व्यासभाष्य 2/55
स्वामी विवेकानन्दं राजयोग पृष्ठ 179
पंड़ित श्री रामशर्मा आचार्य साँख्य दर्शन एवं योगदर्शन, पृष्ठ 66