चरित्र निर्माण में कर्मयोग की उपादेयता

Authors

  • जयपाल सिंह राजपूत सहायक प्राध्यापक, योग विज्ञान, चै.रणबीर सिंह विश्वविद्यालय, जीन्द।
  • सुमन एम॰ए॰ योग द्वितीय वर्ष ,चै.रणबीर सिंह विश्वविद्यालय, जीन्द।

Keywords:

चरित्र, योग

Abstract

चरित्र निर्माण की बातें आज परिवारों में उपेक्षित हैं, शैक्षणिक संस्थानों में नदारद्र है, समाज में लुप्तप्रायः है। शायद ही इसको लेकर कहीं गम्भीर चर्चा होती हो जब घर-परिवार एंव शिक्षा के साथ व्यक्ति निर्माण समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण का जो रिश्ता जोड़ा जाता है, वह चरित्र निर्माण की धूरी पर ही टिका हुआ है। आश्चर्य नहीं कि हर युग पर बल देते रहे हैं। चरित्र निर्माण के बिना अविभावकों की चिंता, शिक्षा के प्रयेाग समाज का निर्माण अधूरा है। व्यक्तित्व का विकास ही चरित्र से होता है और चरित्र से ही पहचान होती है। इसलिए चरित्र निर्माण सबके लिए महत्वपूर्ण है। यूनान के महान् दार्शनिक सुकरात ने भी पुकार-पुकार कर कहा था कि अपने को पहचानो। अपने को पहचानो शब्द का अर्थ वही है कि अपने चरित्र को पहचानो। उपनिषदो में कहा है- ‘आत्मा बोर श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितत्वः, नान्यतोऽहस्त विजानतः’ तब इसी दुर्बोध मनुष्य- चरित्र को पहचानने प्ररेणा की थी।

References

कठोपनिषद- (2/2/7)

श्रीमद्भगतद् गीता- (3/5)

श्रीमद्भगतद् गीता- (2/50)

विशिख ब्राहाणोपनिषद् (2/25)

विष्णु पुराण (6/7/65)

ईशोपनिषद (2/2)

योगवाशिष्ठ के सिद्धान्त-205

श्रीमद्भगतद् गीता (6/3)

Downloads

Published

2018-12-30

How to Cite

राजपूत ज. स., & सुमन. (2018). चरित्र निर्माण में कर्मयोग की उपादेयता. Innovative Research Thoughts, 4(7), 20–23. Retrieved from https://irt.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/959