योग का मनोवैज्ञानिक स्वरूप: एक विश्लेषणात्मक अध्ययन
Keywords:
योग, मनोवैज्ञानिकAbstract
प्रस्तुत शोध अध्ययन का उद्देश्य योग के मनोवैज्ञानिक स्वरूप का विश्लेषण करना है। योग को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने कहा है कि चिŸा की वृŸिायों का नियन्त्रण ही योग है। गीता मंे भी भगवान् श्रीकृष्ण ने दुःखों के संयोग से वियोग कराने वाली विद्या के रूप में योग को बताया है। दुःखों के संयोग से वियोग करने के लिये मन को वश में करना अत्यन्त आवश्यक है और विभिन्न शास्त्रों में मन को वश में करने का उपाय अभ्यास-वैराग्य बताया है।
योगसाधना के सन्दर्भ में मन अथवा चिŸा को साधने का विशेष महत्व है; क्योंकि सधा हुआ चिŸा अथवा मन साधक के लिये मित्र के समान होता है और उच्छृंखल शत्रु के समान। योग को जीवन जीने की कला के रूप में बताया गया है। योग भारतीय दर्शन की एक ऐसी अद्भुत प्रणाली है, जो मनुष्य के शरीर, हाव-भाव, व्यवहार तथा मानसिक धरातल को पूर्णतया प्रभावित करता है। जीवन की अनगढ़ता को दूर करके सुगढ़ बनाने की प्रक्रिया योग के द्वारा सम्भव है; इसी उद्देश्य के लिये प्रस्तुत शोध पत्र के द्वारा योग के मनोवैज्ञानिक स्वरूप का विश्लेषण किया गया है।
References
Murton Hunt – The Universe within, P. 80-81
W.R. uttal- quoted by M. hunt, the Universe Within, P. 81
Ibid, P. 227
“Consciousness and life are Identical, two Names for one things as regarded from with in and from without and from witnout thene is no life without consciousness there is no consciousness without life.” Annie- Besant-A Study in consciousness, P. 5
N.C. Panda- Mind & super Mind, P 35
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