मानव जीवन मे कर्मयोग की उपादेयता

Authors

  • प्रो0 (डा0) विरेन्द्र कुमार विभागाध्यक्ष (योग विज्ञान), चौ० रणबीर सिंह विश्वविद्यालय ;जीन्दद्ध
  • राजबाला एमण्एण् योग द्वितीय वर्षए चौ० रणबीर सिंह विश्वविद्यालय ;जीन्दद्ध

Keywords:

मानव जीवन, कर्मयोगी

Abstract

श्रीमदभगवदगीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, तथा माना गया है के योग में कर्मयोग के द्वारा ईष्वर प्राप्ति की जा सकती है। व्यक्ति अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग खो देतें है। क्योंकि वो कर्म के रहस्य को नहीं जानते। कोई कर्मयोगी निस्वार्थ भाव से कर्म करता है, तो वह कर्मफल के चक्कर में नहीं पड़ता इसलिए ही कर्मयोगी पुर्नजन्म के बंधन से मुक्त रहता है। अगर गीता मंे देखें, तो सम्पूर्ण कर्म-सिद्धान्त उसकी यज्ञ सम्बधी भावना पर आधारित है और यज्ञ का अर्थ है आदान-प्रदान। आदान-प्रदान ही जीवन का नियम है जिसके बिना एक क्षण भी जीना मुष्किल है। व्यक्ति अपने आप को सब कर्मों का भोक्ता समझता है। जिसमें सब आन्तरिक और बाह्य कर्म शामिल होते है और यह कल्पना करता है कि यह सारा प्रपंच मेरे भोग के लिए ही है और इसलिए यही चाहता है कि यह प्रकृति मेरी व्यक्तिगत इच्छााओं को माने या तृप्त करें। व्यक्ति को यह नहीं प्रकृति को कोई वास्ता नही है। व्यक्ति अपनी अज्ञानता के कारण मोह-माया मंे बधंकर कर्मों में लिप्त हो जाता है और बिना किसी मार्गदर्षन के इन सब से निकलना बहुत मुष्किल हो जाता है।

 

References

कर्मयोग- स्वामी विवेकानन्द- (प्रभाव प्रकाषन नई दिल्ली) ;प्ैठछ 978.93.5048.605.4द्ध

कर्म और कर्मयोग- स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती- (योग पब्लिकेषन न्स ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार भारत) ;प्ैठछरू 978.93.81620.60.1द्ध

गीता मानस अपरोक्षाऽनुभूति- स्वामी ओंकारानन्द सरस्वती- (योग पब्लिकेषन न्स ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार भारत) ;प्ैठछरू 978.93.81620.68.7द्ध

कर्म संन्यास-स्वामी सत्यसंगानन्द सरस्वती- (योग पब्लिकेषन न्स ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार भारत) ;प्ैठछरू 978.81.85787.79.4द्ध

पातंजल योग-सूत्र के आधारभूत तत्व- डाॅ0 इन्द्राणी- ;प्ैठछरू 978.93.83754.74.8द्ध

श्रीमद्भगवद्गीता - शांकर भाष्य गीता प्रेस गोरखपुर अध्याय 3, श्लोक सं0 4-7

गीता, अध्याय-3, श्लोक संख्या-15

गीता, अध्याय-3, श्लोक संख्या-19

Downloads

Published

2018-12-30

How to Cite

कुमार प. (डा0) व., & राजबाला. (2018). मानव जीवन मे कर्मयोग की उपादेयता. Innovative Research Thoughts, 4(7), 85–88. Retrieved from https://irt.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/1379