मानव जीवन मे कर्मयोग की उपादेयता
Keywords:
मानव जीवन, कर्मयोगीAbstract
श्रीमदभगवदगीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, तथा माना गया है के योग में कर्मयोग के द्वारा ईष्वर प्राप्ति की जा सकती है। व्यक्ति अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग खो देतें है। क्योंकि वो कर्म के रहस्य को नहीं जानते। कोई कर्मयोगी निस्वार्थ भाव से कर्म करता है, तो वह कर्मफल के चक्कर में नहीं पड़ता इसलिए ही कर्मयोगी पुर्नजन्म के बंधन से मुक्त रहता है। अगर गीता मंे देखें, तो सम्पूर्ण कर्म-सिद्धान्त उसकी यज्ञ सम्बधी भावना पर आधारित है और यज्ञ का अर्थ है आदान-प्रदान। आदान-प्रदान ही जीवन का नियम है जिसके बिना एक क्षण भी जीना मुष्किल है। व्यक्ति अपने आप को सब कर्मों का भोक्ता समझता है। जिसमें सब आन्तरिक और बाह्य कर्म शामिल होते है और यह कल्पना करता है कि यह सारा प्रपंच मेरे भोग के लिए ही है और इसलिए यही चाहता है कि यह प्रकृति मेरी व्यक्तिगत इच्छााओं को माने या तृप्त करें। व्यक्ति को यह नहीं प्रकृति को कोई वास्ता नही है। व्यक्ति अपनी अज्ञानता के कारण मोह-माया मंे बधंकर कर्मों में लिप्त हो जाता है और बिना किसी मार्गदर्षन के इन सब से निकलना बहुत मुष्किल हो जाता है।
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श्रीमद्भगवद्गीता - शांकर भाष्य गीता प्रेस गोरखपुर अध्याय 3, श्लोक सं0 4-7
गीता, अध्याय-3, श्लोक संख्या-15
गीता, अध्याय-3, श्लोक संख्या-19
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