’’मानव जीवन में यम की उपादेयता‘‘
Keywords:
मानव, प्राचीन काल युगAbstract
प्राचीन काल युग के मानव जीवन में सभी तथ्यों तथा तत्वों में सन्तुलन व समानता परस्पर पाई जाती थी। इसलिए वह स्वस्थ, सुखी व संतुश्ट होते थे। जिस प्रकार से वह अपना जीवन जीते थे वह एक प्रकार की नियमित जीवन कला विज्ञान का रूप था। यह सब इस वजह से या इस कारण से एक होता था क्योकि वह अपने सम्पूर्ण जीवन को एक नियमित रूप रेखा के माध्यम से व्यतित करते थे। जो दिनचर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या के अनुसार होता था। जिसमें व्यक्ति का जीवन ब्रह्ममुहूर्त से षुरू होकर संायकाल तक नियमित होता था। व्यक्ति के कार्य के अनुसार या उसके स्वास्थ्य के अनुसार पथ्य आहार निर्धारित होते थे। जैसे कि महर्शि पतंजलि ने अपने कृतिक पुस्तक पातंजल योगसूत्र में बताया है। अश्टांग योग में पहले और दूसरे नियम के अन्तर्गत ’साम्जस्य‘ स्थापित किया है।
References
प्रथम अहिंसा ही सुन लीजै। मनकरि काहू दोश न कीजै।। कडुवा वचन कठोर न कहिये। जीवघात तनसों नहीं दहिये।। तनम न वचन न कर्म लगाबै। यही अहिंसा धर्म कहाबै।। भक्तिसागर,अश्टांग योग /27
स्वामी ओमानन्द तीर्थ पंतजल योग प्रदीप, पृश्ठ-369
तत्रहिंसा सर्वथा सर्वभूतानामनभिद्रोहः। यो. द. व्या. भा. 2/3
अहिंसा प्रतिश्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः। यो. द. 2/35
स्वामी विवेकानन्द - राजयोग, पृश्ठ - 172
तन्थिमं पठमं ठाणं महावीरेण देसियं। अहिसां दिट्ठा सत्व भू सु संजभा।। दष. अ. छ गा. 9-10
‘सत्यं यथार्थे वाङ्मनसे’ - व्यास भाश्य-2/30
स्वामी हरिहरानन्दधारण्य - प. यो. द. सूत्र 2/30, पृश्ठ- 246
सत्यप्रतिश्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् - यो. सू. 2/36
क्रियमाण्हि क्रिया सत्याभयासतो भोगिनस्तथा प्रकृश्यते यथा क्रियायाम कृतायामपि योगीफलमाप्नोति। - भोजवृति 2/36 पृ. 241
जे सत्य, सत्य ही बोले, हिरदे तोलि वचन मुख खोलै। भक्तिसागर (अश्टांग योग)
त्यं ब्रूभात्प्रियं ब्रूयात्सत्यमप्रियम, प्रियं च नानृतं ब्रूयादेशः धर्मः सनातन। मनु. 4/238
स्तेयमषास्त्रपूर्वकं द्रव्याणाम् परतः स्वीकरणम्। तत्प्रतिशेधः पुररस्पृहा रूपमभक्तेयमिति - व्या. भा. 2/30
मानसव्यापार पूर्वकत्वाद्धाचाचिक कायिक व्यापारयोंः प्रधान्यात्मनोव्यापार उक्तोऽस्पृहारूपमिति। - तै. वै. 2/30
अस्तेय प्रतिश्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्’-महर्शि पतंजलि-यो0 सू0 2/37
स्वामी विवेकानन्द - पृ0 144
ब्रह्मचार्य गुप्तेन्द्रिय स्योपस्थस्य संयम: - व्या0 भा0 2/30
ब्रह्मचार्यमुपस्थ संयमः इन्द्रियान्तराणिऽपि तत्र लोलुपानि रक्षणीयानि यतः संयतोपस्थोऽपि - यो0 प्र0 पृ0 39
अथर्ववेद - 3/5/19
ब्रह्मचार्यप्रतिश्ठायां वीर्य लाभः - महर्शि पं.- यो. सू. 2/38
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