भारतीय परिप्रेक्ष्य में व्यक्तित्व की संकल्पना
Keywords:
भारतीय परिप्रेक्ष्य, व्यक्तित्व, त्रिदण्ड, वैदिक दर्शनAbstract
मानव जीवन के तीन पक्ष होते हैं- शरीर, मन और आत्मा। चरक संहिता मे ं इन्हंे ‘त्रिदण्ड’ के नाम से अभिहित किया गया है। इन्हीं त्रिदण्ड का संयुक्त परिणाम ही व्यक्तित्व है। प्राचीन हिन्दू दार्षनिको ने व्यक्तित्व विकास के लिए मानसिक नियंत्रण को आवष्यक माना है। व्यक्ति का शरीर या मुखमुद्रा, बुद्धि, स्वाभाव, सामाजिक एवं सांवेगिक गुणों तथा अभिवृत्तियों एवं मूल्यों का समन्वित, सम्पूर्ण तथा अद्वितीय व्यवस्था ही व्यक्तित्व है। उपनिषद् के अनुसार व्यक्ति के व्यक्तित्व का केन्द्र जीवात्मा होती है। उपनिषद् मे ं इसके पाचँ रूप बताए गए हैं- अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष। वैदिक चिन्तन मे व्यक्तित्व विकास की संकल्पना के अन्तर्गत गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त का समस्त काल खण्ड समाहित है। इसमे ं जीवन को सौ वर्ष का माना गया है। श्रीमद्भगवतगीता मे व्यक्तित्व को तीन भागो मे विभाजित किया है- सतोगुणी,रजोगुणी तथा तमोगण्ु बौद्ध दर्शन मे व्यक्तित्व विकास की धारणा को चार आर्य सत्य तथा आष्टांगिक मार्गों के विष्लेण द्वारा समझा जा सकता है तथा व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास इन्हीं के अनुसरण से संभव है। इस दर्शन के अनुसार व्यक्ति का निर्माण इस प्रकार होना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व मानवीय दृष्टि से परिपूर्ण हो।
References
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