“ऋग्वेद प्रातिशाख्य व साम्प्प्रतिक परिप्रेक्ष्य में उसका महत्त्व”
Keywords:
तवश्वेतिहास, प्रातिशाख्य का स्वरूपAbstract
तशक्षा तसद्धान्िों का व्यवतस्थि व वैज्ञातनक ढंग से तवश्लेषण किने वाले बैददक-व्याकिणपिक ग्रन्थों को प्रातिशाख्य नाम से व्यवहृि दकया जािा है । जब वैददक संस्कि का रूपान्िि लौदकक संस्कि में होने लगा
िब मुलवैददक उच्चािण सम्प्बतन्धि तसद्धान्िों के िक्षण हेिु प्रातिशाख्य ग्रन्थां का प्राकट्य हुआ | उच्चािण - प्रदिया , उच्चािण स्थान, उच्चािणावयव मन्त्रोच्चािण को तवतधन्न अवस्थाएँ अक्षि , उनका आधाि, ध्वतनयां का वगीकिण, स्विाधाि, शुद्धपाठ के तनयम, हस्िसंचालन, िमपाठ आदद तवषयों का सतवस्िृि तववेचन प्रातिशाख्य ग्रन्थों में उपलब्ध होिा है आज धी भाषा वैज्ञातनकों के तलए मृलग्रन्थ के रूप में प्रातिशाख्यों
का तवशेष महत्व है । “ति-भातषया-यन्त्र” के प्रयोग में तवशेषि: ऋग्वेद-प्रातिशाख्य-वर्णिि तसद्धान्िों का अनुगमन आज भी देखा जािा है। तवतभन्न संस्थानों में भाषा कं शुद्धोच्चािण हेिु संस्थातपि तवतभन्न भाषा प्रयोगशलाओं में ऋग्वेद-प्रातिशाख्य के तनयमों का प्रभाव दृतिगोचि होिा है रिकॉर्डिंग आदद सन्दभों में भी प्रातिशाख्यों का महत्त्व कम नहीं आँका जा सकिा । संक्षेपि: कहा जा सकिा हैं दक आधुतनक युग 'में भी प्राचीन प्रातिशाख्यों की अवहेलना नहीं की जा सकिी ।
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साधु आश्रम होतशयािपुि, 146021