अलौकिक रत्यादि की रसरूपता
Keywords:
साधारणीकृत, प्रतीयमान अलौकिक, विद्यमान, ‘स्थायिनो रसनिष्पत्तिःAbstract
सुरजनदास स्वामी ने अपने ग्रन्थ रससिद्धान्त की शास्त्रीय समीक्षा में अलौकिक रत्यादि की रसरूपता का वर्णन किया है। जो इस प्रकार से है - अभिनवगुप्त ने विभावादिसाधारण्य के द्वारा सामाजिक के हृदय में विभावादिचर्वणा के समय ही उत्पन्न हुए संस्काररूप चव्र्यमाण अलौकिक रत्यादि को या उनकी चर्वणा को ही रस स्वीकार किया है। भट्टलोल्लटादि की तरह लौकिक रत्यादि स्थायीभावों को रस नहीं माना। किन्तु इनका मत ‘‘नानाभावाभिव्यञ्जितान् वागङ्गसत्वोपेतान् स्थायिभावानास्वादयन्ति सुमनसः प्रेक्षकाः। (नाट्यशास्त्र, पृव्म् 289) तथा ‘‘नानाभावोपगताः अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्ति’’ (नाट्यशास्त्र, पृव्म् 288)
इन कथनों से स्थायी भावों के आस्वादन को रस बतलाने वाले भरत के मत से विरुद्ध प्रतीत होता है। इस विरोध का परिहार अभिनवगुप्त ने इस कथन के द्वारा कर दिया है - ‘‘नानाभावोपगताः नानाभूतैर्विभावादिरूप समीपं प्रत्यक्षकल्पतां गता लोकापेक्षया ये स्थायिनो भावास्ते रस्यमानतैकजीवितं रसत्वं तत्र प्रतिपद्यन्ते।’’ (अभिनवभारती, पृव्म् 288) अर्थात् भरत ने जो स्थायिभावों में रस्यमानतारूप रसत्व बतलाया है, वे लोक में रत्यादि स्थायी कहलाते है, अतः उन्हें स्थायी कहा है। किन्तु सामाजिकों के हृदय में संस्कार रूप में विद्यमान तथा साधारणीकृत विभावादि द्वारा साधारणीकृत रूप से प्रतीयमान अलौकिक रत्यादि ही सहृदयों द्वारा रस्यमान होकर रस बनते हैं। रस्य- मानतादशा में तो विभावादिचर्वणासमकाल में ही उनका उदय होता है न कि पूर्वापर काल में उदय होता है। अतः रस को स्थायी कहना संभव नहीं है। इसलिए ‘विभावानुभावव्यभिचारि- संयोगाद्रसनिष्पत्तिः’ इस सूत्र में भी ‘स्थायिनो रसनिष्पत्तिः’ कहकर स्थायी उपादान नहीं किया गया है।
References
एतदुक्तं भवति एकत्रैकदैक - क्रियायामन्योन्याश्रयत्वं दोषो न तु क्रियाभेदे। यथा व्यंजनौषधि- संयोगेनान्नस्याह्लादिरसवत्ता क्रियते। अत्रेन चाश्रयरूपेण सता व्यञ्जनोषधिसुखयोग्यता क्रियते। एवं भावै रस्यमानता। रसैश्च विभावादिव्यपदेश्यता कारणादीनाम्। यथा पटापेक्षया तन्तवः पटकारणमिति व्यपदेश्याः। तन्त्वपेक्षया पटः कार्यः। न चेतरेतराश्रयत्वं, तथा प्रकृतेऽपि।
(अभिनवभारती, पृव्म् 293-294)
‘न हि रसादृते काश्चेदर्थः प्रवर्तते।’ - नाट्यशास्त्र, भरतमुनि
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