धूमिल के काव्य में व्यंग्य-परम्परा

Authors

  • savita Rani कस्तूरबा गांधीबालिका विद्यालय,गांव-किरतानजिला हिसार(हरियाणा)

Keywords:

ग्लानि, आत्मपरक, अप्रौढ़ता

Abstract

जिस समय से साहित्य सृजन का आरम्भ हुआ, उसी समय से व्यंग्य का भी आरम्भ हो गया। साहित्य में व्यंग्य कुछ इस भाँति घुला-मिला रहा है जैसे दूध मंे मक्खन रहता है। उसका पृथक अस्तित्व स्पष्ट न होते हुए भी वह अपना प्रभाव छोड़ता रहा है और लक्ष्य-सिद्धि प्राप्त करता रहा है। हालांकि प्रतिभावान लेखक तथा कवि तो दिन-रात इसके सृजन में लगे हुए थे। व्यंग्य साहित्य की विधाओं के साथ बेल के समान लिपटकर कभी महाकाव्यों में, तो कभी काव्यों में तो कभी उपन्यास में, तो कभी कहानी में, कभी नाटक में, तो कभी निबंध में उभरता रहा है। अब हम धूमिल के काव्य में व्यंग्य-परम्परा का वर्णन करते हैं।

References

डॉ. इन्द्रनाथ- ‘आधुनिक और हिन्दी उपन्यास’, राजकमल, नई दिल्ली, 1990

धूमिल-संसद से सड़क तक- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1972

डॉ. रामशकल बिंद - ‘हिन्दी व्यंग्य कविता और धूमिल’, शिवहरि प्रकाशन, दिल्ली, 2008

डॉ. बळीराम राख- ‘आधुनिक हिन्दी व्यंग्य निबंधों में सांस्कृतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना’, चन्द्रलोक प्रकाशन कानपुर, 2016

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Published

2018-03-30

How to Cite

Rani, savita. (2018). धूमिल के काव्य में व्यंग्य-परम्परा. Innovative Research Thoughts, 4(2), 66–68. Retrieved from https://irt.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/473