अहिंसा का गाँधी दर्शन: एक आलोचना
Keywords:
अहिंसा, धार्मिकताAbstract
यह दर्शन जो सभी कर्मों पर एक ही मशीनी नियम लागू करता है अथवा एक शब्द लेता है और उसमें सारे मानव जीवन को बैठाने का प्रयास करता है, वह निरर्थक है। एक योद्धा की तलवार न्याय और सदाचार की पूर्ति के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी कि एक संत की धार्मिकता। शिवाजी के बिना रामदास पूर्ण नहीं हैं। न्याय की रक्षा करने तथा उसे छीनने और निर्बल को दबाने से बलवान को रोकने के लिए ही क्षत्रिय बनाया गया।
References
दादा भाई नौरौजी और रमेशचन्द्र दत्त की पुस्तकें ब्रिटिश राज का आर्थिक विश्लेषण हैं, हिन्द स्वराज के दर्शन से संबद्ध कुछ भीं उनमें नहीं है। शेष सभी अठारह पुस्तकें दार्शनिक रचनाएं हैं जो सभी पश्चिमी चिंतकों की हैं।
गुजरात राजनीतिक परिषद् में भाषण, गोधरा, 3 नवंबर, 1917
उहारण के लिए देखें, ‘गुजरात राजनीतिक परिषद् में भाषण, 3 नवंबर 1917
चर्खे को ‘भविष्य के भारत की सामाजिक व्यवस्था’ का आधार बनाने की बात गाँधी 1940 में भी करते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा की गई गुरु-गंभीर आलोचनाओं (देखें, इनका ‘‘स्वराज साधना’’ शीर्षक लेख) के बीस वर्ष बाद भी, बिना उसका कहीं उत्तर दिए।
ए.बी. पुराणी इविनिंग टॉक्स विद श्रीअरविन्दो (पांडिचेरी: श्री अरविन्द आश्रम, 1995), पृ0 52-53
उमा देवी, द वार: थ्री लेटर्स टु गाँधीजी (कलकत्ता: द कलकत्ता पब्लिशर्स, 1941), इसमें उन तीन पत्रों के अतिरिक्त उमादेवी द्वारा लिखित एक लंबा परिचय भी है।
देखें, रवीन्द्रनाथ के ‘सत्य का आह्वान’, ‘समस्या’, ‘स्वराज साधना’। यह सभी 1921-25 के बीच लिखे गए थे। यदि इन्हें पढ़कर संबंधित बिन्दुओं पर हिन्द स्वराज की वैचारिकता से तुलना करें तो गाँधीजी की रचना चिंतन और गहराई में निस्संदेह फीकी लगती है। रवीन्द्रनाथ के निबंध, भाग-1 (अनु0 - विश्वनाथ नरवणे), (दिल्ली: साहित्य अकादमी, 2009, पुनर्मुद्रण)