भारत मे ब्रिटिश शासन का विरोध : एक विवेचना

Authors

  • Shrichand Kamat

Keywords:

भारतवर्ष, व्यापार, प्राचीन काल

Abstract

 प्राचीन काल से ही भारतवर्ष का विदेशों से व्यापारिक संबंध था । व्यापार स्थल और जल दोनों मार्गों  से होता था। इन मार्गों पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिए अन्य राष्ट्रों में समय-समय पर संघर्ष हुआ करता था। जब इस्लाम का उदय हुआ और अरब, फारस मिस्र और मध्य एशिया के विविध देशों में इस्लाम का प्रसार हुआ, तब धीरे-धीरे इन मार्गों पर मुसलमानों का अधिकार हो गया और भारत का व्यापार अरब निवासियों के हाथ में चला गया। अफ्रीका के पूर्वी किनारे से लेकर चीन समुद्र तट पर अरब व्यापारियों की कोठियां स्थापित हो गईं। यूरोप में भारत का जो माल जाता था वह इटली के दो नगर जिनेवा और वेनिस से जाता था। ये नगर भारतीय व्यापार से मालामाल हो गए। वे भारत का माल कुस्तुन्तुनिया की मंडी में खरीदते थे। इन नगरों की धन समृद्धि को देखकर यूरोप के अन्य राष्ट्रों को भारतीय व्यापार से लाभ उठाने का भरसक प्रयास किया । बहुत प्राचीन काल से ही यूरोप के लोगों का अनुमान था कि अफ्रीका के रास्ते  भारतवर्ष तक समुद्र द्वारा पहूँचने का कोई न कोई मार्ग अवश्य होगा  ।

References

जैन, हुकम चन्द (2003-04) भारतीय ऐतिहासिक स्थल कोश : जयपुर जैन प्रकाशन मंदिर,

झा. ओ.पी. (अनु.) (2014) कौटिल्य का अथशास्त्र, वित्तीय प्रबंधन और आर्थिक प्रशासन के मार्ग : मुंबई जयको पब्लिशिग हाउस

टण्डन डॉ. किरण. (1990). संस्कृत साहित्य में राजनीति श्री कृष्ण और चाणक्य के संदर्भ में : नई दिल्‍ली. ईस्टर्न बुक लिंकर्स

डॉ. धरमवीर (1996) कौटिल्य का सामाजिक वैर : दिल्‍ली. संगीता प्रकाशन, शाहदरा

दिक्षितर, वी.आर.आर (1932). हिन्दू एडिमनिस्ट्रेटिव इन्स्टीट्यूशन्स : मद्रास. यूनिवर्सिटी ऑफ मद्रास

दिनकर, रामधारी सिंह (2015). संस्कृति के चार अध्याय : इलाहाबाद. लोकभारती प्रकाशन

नाराणी प्रकाश नारायण (2003) आधुनिक भारत के राजनीतिक विचारक : जयपुर. पोइन्टर पब्लिशर्स

नारायण डॉ. इकबाल (2005). भारतीय राजनीतिक विचारक : जयपुर . ग्रंथ विकास

निरंजन, हरिओम शरण ( 2009). कौटिलीय अर्थशास्त्र (आधुनिक राजनीति में प्रासंगिकता) : इस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्‍ली

Downloads

Published

2018-03-30

How to Cite

Kamat , S. (2018). भारत मे ब्रिटिश शासन का विरोध : एक विवेचना. Innovative Research Thoughts, 4(3), 265–270. Retrieved from https://irt.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/1337