दलितों और गैर-दलितों की तुलनात्मक वैचारिक दृष्टि
Keywords:
दलित दृष्टिकोण, गैर-दलित दृष्टिकोण, दोनों दृष्टिकोणों के बीच के सामान्य बिन्दुAbstract
दलित लेखन के संदर्भ में जिस तरह गैर-दलितों के दृष्टिकोण में असमानता पायी जाती है उसी तरह दलित लेखकों के दृष्टिकोण में भी असमानता पायी जाती है। वैसे हिंदी के दलित लेखकों और आलोचकों में मराठी लेखकों की अपेक्षा मत-वैभिन्नता बहुतद कम है। मराठी में अम्बेडकरवादियों और माक्र्सवादियों के बीच दलित और दलित साहित्य के निर्धारण के प्रश्न पर गहरे मतभेद है। वहां के माक्र्सवादी दलित, दलित और दलित साहित्य के दायरे को विस्तार देना चाहते हैं, जबकि अम्बेडकरवादी उसको दलित समुदाय तक ही सीमित रखना चाहते हैं। वैसे देखा जाए तो दलित साहित्य के संदर्भ में ढेर सारे प्रश्न उठाए गए है, लेकिन इसमें कुछ ही महत्वपूर्ण है। जैसे दलित कौन है ? दलित साहित्य क्या है ? दलित साहित्य के प्रेरणास्त्रोत क्या है, उसका सौन्दर्यशास्त्र क्या है ? दलित साहित्य गैर-दलित लिख सकते हैं कि नहीं। गैर-दलितों ने दलितों के विषय में अब तक जो लिखा है उसका महत्व क्या है ? अनुभूंित और स्वानुभूंित का प्रश्न आदि। अब पहले प्रश्न को लिया जाए और देखा जाए कि दलित लेखकों का इस विषय में क्या दृष्टिकोण है। अर्थात् दलित कौन है ? इस संदर्भ में डाॅ0 श्यौराजसिंह ‘बेचैन’ का कहना है कि -‘मेरे विचार से भारतीय समाज व्यवस्था में जिन्हें जन्म के आधार पर निम्न जाति करार दिया गया है, जिनके साथ बहिष्कार का व्यवहार हुआ है, जो अछूत माने गए है वे सब साहित्य की भाषा में दलित है। दूसरे शब्दों में दलित की सबसे अच्छी एवं सही परिभाषा संविधान में तय की गयी अनुसूचित जातियां एवं जनजातियां, दलित हैं ............।’’ दलित कौन है इस संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि का कहना है कि - ‘‘दलित शब्द व्यापक अर्थबोध की अभिव्यंजना करता है। भारतीय समाज व्यवस्था में जिसे अश्पृश्य माना गया वही व्यक्ति दलित है ......।’’ इस संदर्भ में डाॅ0 धर्मवीर का कहना है कि - ‘‘दलित हिंदू वर्ण व्यवस्था का कुछ नहीं लगता। वर्णव्यवस्था दलित की न मां है, न ताई न चाची, न मौसी और न मामी, न फूफी। वह उसकी दादी या नानी में से कुछ भी नहीं है। दलित के लिए हिंदू वर्ण व्यवस्था अचम्भा हो सकती है ........... हां यह कहना किसी भी दलित का मूल अधिकार है कि वह हिंदू वर्ण-व्यवस्था का अंग नहीं है। हिंदू वर्ण व्यवस्था दलित के लिए एक जेल है। दलित वर्ग ब्राह्मण की तरफ से सजायाफ्ता है लेकिन इस संभावना के साथ कि युद्व करके वह इस जेल से भी कभी बाहर हो सकता है। दृष्टि यहां तक फैली हुई होनी चाहिए कि दलित हिंदू वर्ण व्यवस्था से अनजान, बाहर और पृथक है ........।’’ कुछ दलित साहित्यकारों और बुद्विजीवियों का मानना है दलित शब्द के अंतर्गत केवल अछूत ही रखे जा सकते हैं आदिवासी नहीं। इस संदर्भ में इन लोगों का मानना है कि आदिवासियों की समस्या अछूतों की समस्या से अलग है, अर्थात् सामाजिक भेदभाव का जितना सामना अछूतों को करना पड़ता है, उतना आदिवासियों को नहीं। इस तरह की सामाजिक समस्या से वे पूरी तरह मुक्त है। लेकिन उपरोक्त परिभाषाओं से जो बात उभर कर आती है वह यह कि जो समूह वर्णाश्रम व्यवस्था से बाहर है वही दलित है। इस आधार पर देखा जाए तो मात्र अछूत और आदिवासी ही वर्णाश्रम व्यवस्था से बाहर के समूह है। इसलिए इन्हीं को ही दलित की श्रेणी में रखा जाता है। अबर दलित शब्द से इन सामाजिक समूहों का भाव नहीं व्यक्त होता है, तो इसे छोड़ा जा सकता है जैस डाॅ0 धर्मवीर कहते हैं -‘‘दलित साहित्य की परिभाषा में दलित के स्वप्न, दलित की कल्पना और दलित के ख्याल को छोड़ा नहीं जा सकता। जरूरत पड़े तो इस दलित शब्द को छोड़ा जा सकता है।’’ इसलिए दलित साहित्यकारों के लिए मोटे तौर पर और सर्वाधिक मान्य दलित शब्द अगर किसी सामाजिक समूह का द्योतक है तो वह है, वर्णाश्रम समाज व्यवस्था से बाहर रहने वाले समूह का। अब जो दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न है वह है दलित साहित्य है क्या और उसकी अवधारणा क्या है ? दलित साहित्य की अवधारणा पर एक प्रश्न के उत्तर में ओमप्रकाश बाल्मीकि जी कहते हैं - ‘‘जरूरी इसलिए है कि हिंदी साहित्य में ढूंढने पर भी हमें अपना चेहरा दिखायी नहीं देता, वो साहित्य हमें अपना नहीं लगता। चूंकि वहां अपमान और हीनंताबोध को अलावा कुछ नहीं है। हमारी जिजीविषा, हमारा संघर्ष, हमारे जीवन मूल्य, हमारी मानवीय संवेदनाएं कैसे मान सकता है
References
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