जयनंदन की कहानियााँ: एक सर्जक कमेंटेटर के पुनर्सृजन का आँखों देखा हाल

Authors

  • अमरजीत कुमार शोधार्थी कुमारशोधार्थी (हिंदी विभाग), मगध विश्वविद्यालय, बोधगया
  • डॉ0 ज्ञान प्रकाश रत्नेश (हिंदी विभाग), के0 एल0 एस0 कॉलेज, नवादा

Keywords:

पास-पड़ोस, लेखक, कामगार, आाँखों देखा हाल, कहानी-संग्रह, प्रकानशत

Abstract

हिन्दी कहानी साहित्य में  जयनंदन एक जाना-पहचाना नाम है। इनके अब तक बारह कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें 175 के आसपास कहानियाँ संकलित हैं। ये कहानियाँ कहीं न कहीं देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर प्रशंसित हो चुकी हैं। इनके कहानी-संग्रह हैं ‘सन्नाटा भंग’, ‘विश्व बाजार का ऊंट’, ‘एक अकेले गान्ही जी’, ‘कस्तूरी पहचानो वत्स’, ‘दाल नहीं गलेगी अब’, ‘घर फूंक तमाशा’, ‘सूखते स्रोत’, ‘गुहार’, ‘गांव की सिसकियां’, ‘भितरघात’, ‘सेराज बैंड बाजा’ तथा ‘गोड़पोछना’। इसके साथ ही इनमें से चुनी हुई कहानियों के प्रतिनिधि संकलन - मेरी प्रिय कथायें’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’, ‘संकलित कहानियां’, चुनी हुई कहानियां’, ‘चुनिंदा कहानियाँ’ भी प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी कहानियाँ भोगे हुए यथार्थ का बोध कराती हुईं सामाजिक सरोकार के गंभीर पहलुओं को रेखांकित करती हैं। इन्हें पढ़ते हुए लगता है कि ये कहानियाँ लेखक के आसपास ही घटित हुई हैं, जिन्हें उन्होंने एक सर्जक कमेंटेटर की तरह पुनर्सृजन करके आँखों देखा हाल प्रस्तुत कर दिया है। इनकी कहानियों का विषय गाँव है, जहाँ से लेखक की स्मृतियाँ जुड़ी हैं, फिर कार्य-स्थल हैं, जहां लेखक वर्षों एक कामगार के तौर पर सेवारत रहे। जहाँ-जहाँ विसंगतियों और अन्तर्विरोधों पर उनकी पैनी नजर गयी हैं, वहाँ की समस्यायें और त्रासदियाँ जीवंतता से चित्रण के कैनवास पर उतर आयी हैं। जिस औद्योगिक शहर से लेखक का वास्ता रहा है, वहाँ के मजदूरों के दुख-दर्द और सिसकियों के करुण स्वर कराह की तरह इनकी कहानियों में समाहित होते दिखाई पड़ते हैं। इसके अलावा भी लेखक की सचेत नजरें घर-परिवार, पास-पड़ोस, ऑफिस-शहर की विडम्बनाओं को कैमरे की तरह अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं।

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Published

2022-06-30

How to Cite

अमरजीत कुमार शोधार्थी, & डॉ0 ज्ञान प्रकाश रत्नेश. (2022). जयनंदन की कहानियााँ: एक सर्जक कमेंटेटर के पुनर्सृजन का आँखों देखा हाल. Innovative Research Thoughts, 8(2), 67–70. Retrieved from https://irt.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/1131